देव-पूजन

हमारे शास्त्रों में नित्य एवं नैमित्तिक देव पूजन के विषय में विस्तार से वर्णन किया गया है। प्राय: देव पूजन के समय कभी-कभी ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि पूजन करने वाला व्यक्ति निर्णय नहीं कर पाता है कि कर्म अथवा उपचार की सही विधि क्या है । इसके साथ  ही  उसके मन में अनेक जिज्ञासाओं का भी उदय होता है, जिनके  निराकरण का  वह प्रयास करता है, लेकिन  सदैव उनका निराकरण नहीं हो पाता है।  इसको ही दृष्टि में रखते हुए हमने आपके प्रिय चैनल  श्रीविद्यासंवाद एवं  संबद्ध वेबसाइट GKMEDHA.COM के  माध्यम से यह  वीडियो श्रंखला  निम्न दश जिज्ञासाओं के निराकरण के साथ प्रारंभ की है। आइए जिज्ञासाओं के विषय में शास्त्रोक्त निराकरण के अनंतर देव पूजन में प्रवर्तित हों।

1.देव-पूजन क्यों आवश्यक है ?

भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के 18वें अध्याय के 46वें श्लोक में कहा है 

                                                        यतः    प्रवृत्तिर्भूतानां  येन  सर्वमिदं    ततम्।
                                             स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।18.46।।

अर्थात् जिस परमात्मासे सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उसी परमात्माका अपने-अपने स्वभावज कर्मोंके द्वारा पूजन करना चाहिये।

2. गृहस्थ को कौन से नित्य कर्म करने चाहिए और क्यों ?

आश्वलायन गृह्यसूत्र में कहा गया है :

अथोच्यते गृहस्थस्य नित्यकर्मं यथाविधि।
यत्कृत्वाऽऽनृण्यमाप्नोति दैवात्पैत्र्याच्च मानुपात्॥

बृहत्पाराशर स्मृति के अनुसार :

सन्ध्या स्नानं जपश्चैव देवतानाच्च पूजनम्।
वैश्वदेवं तथातिथ्यं  षट् कर्माणि  दिने-दिने॥

अर्थात् गृहस्थ को यथाविधि नित्यकर्म करने से देव, ऋषि और पितृ ऋण से छुटकारा होता है। स्नान, सन्ध्या, जप, देवताओं का पूजन, वैश्वदेव औरअतिथि-सत्कार ये छः कर्म नित्य करने चाहिये।

3.देवपूजन से पूर्व तीन बार आचमन का विधान क्यों है ?

किसी भी पूजन अनुष्ठानादि से पूर्व सामान्यतया दाहिने हाथ में जल लेकर अङ्गुष्ठ तथा कनिष्ठा को अलग रखते हुए ब्रह्मतीर्थ अर्थात् अङ्गुष्ठमूल से आगे बताए गए तीन नामों को क्रमशः बोलकर बिना ओष्ठ का शब्द किए आचमन करना चहिये।

ॐ केशवाय नमः। ॐ नारायणाय नमः। ॐ माधवाय नमः।

इसके पश्चात् अङ्गुष्ठमूल से दो बार होठों को पोंछकर इस मन्त्र को बोलकर हाथ धोलें – ॐ हृषीकेशायनमः।

तीन आचमन आत्मशुद्धि का साधन होने के साथ तापत्रय की शाँति भी करते हैं। प्रथम आचमन से आध्यात्मिक, द्वितीय से आधिभौतिक तथा तृतीय से आधिदैविक तापों की शाँति होती है।

4. देवविग्रहों को स्नान तथा पुष्प आदि अर्पित करते समय क्या विशेष ध्यान रखना चाहिए ?

हम इन विषयों को शास्त्र के निर्देशों के आधार पर क्रम से प्रस्तुत कर रहे हैं –

सर्वप्रथम आचारमयूख ग्रन्थका वचन उद्धृत करते हैं-

नाङ्गुष्ठैर्मदयेद्देवं नाधः पुष्पैः समर्चयेत्।
कुशाग्रैर्न क्षिपेत्तोयं वज्रपातसमं  भवेत्॥

अर्थात् देवविग्रहों को अंगूठे से न मलें और पुष्पों को अधोमुख करके न चढ़ावें। कुशाके अग्रभाग से देवताओं पर जल न छिड़कें। ऐसा करना वज्रपात तुल्य है।

5. देवविग्रहों को पत्र, पुष्प तथा फल आदि अर्पित करते समय क्या विशेष ध्यान रखना चाहिए ? इस विषय में अन्यत्र इस प्रकार शास्त्राज्ञा प्राप्त होती है-

पत्रं वा यदि वा पुष्पं फलं नेष्टमधोमुखम्।
यथोत्पन्नं  तथा देयं  बिल्वपत्रमधोमुखम्॥

अर्थात् पत्र, पुष्प तथा फलका मुख नीचे करके न चढ़ायें। वे जैसे उत्पन्न होते हैं, उनको वैसे ही चढ़ाना चाहिये। किन्तु बिल्वपत्र उल्टा करके चढ़ावें।

6. देवताओं को क्या अर्पित करना निषद्ध है ?

इस संबंध में हमें यह शास्त्रवचन मिलते हैं –

                                                                    प्रथम –  त्रिर्देवेभ्यः प्रक्षालयेत् सकृत् पितृभ्यः।

       द्वतीय –  नाक्षतैरर्चयेद्विष्णुं   न  तुलस्या गणाधिपम्।
                    न दूर्वया यजेद् दुर्गां बिल्वपत्रैश्च भास्करम्॥
                    दिवाकरं    वृन्तहीनैर्बिल्वपत्रः   समर्चयेत् ॥

अर्थात् देवताओं को तीनबार और पितरों को एकबार धोकर अक्षत चढा़यें। विष्णुको चावल, गणेशको तुलसी, दुर्गाको दूर्वा और सूर्यनारायण  को  बिल्वपत्र  न चढा़यें। किन्तु डंडी तोड़कर सूर्यनारायण  को  बिल्वपत्र चढा़ सकते हैं।

7. वृक्ष से तुलसीग्रहण के क्या नियम हैं ?

संक्रान्ति, द्वादशी, अमावस्या, पूर्णिमा, रविवार,और सन्ध्याके समय तुलसी तोड़ना निषिद्ध है।  यदि विशेष आवश्यक हो तो इस मन्त्र को बोल कर तोड़ सकते हैं –

त्वदङ्गसम्भवेन  त्वां  पूजयामि  यथा हरिम्।
तथा नाशय विघ्नं मे ततो यान्ति पराङ्गतिम्॥

वृक्ष से तुलसीग्रहण करते समय यह मन्त्र बोलें-

तुलस्यमृतजन्मासि सदा त्वं केशवप्रिया।
केशवार्थे चिनोमि  त्वां वरदा भव शोभने॥

8.शालग्राम अथवा विष्णु पूजन संपन्न हो जाने के उपरान्त चरणामृत ग्रहण की विधि क्या है तथा चरणामृत किन- किन मन्त्रों से ग्रहण करना चाहिए ?

भगवान का चरणोदक अमृततुल्य होने से चरणामृत कहा जाता है। चरणामृत ग्रहण करने के लिए बायें हाथ पर दोहरा वस्त्र रख कर दाहिना हाथ रखें, पश्चात् चरणामृत इस मन्त्र से पान करें। ध्यान रखें चरणामृत कण पृथ्वी पर न गिरें।

चरणामृत ग्रहण मन्त्र –

कृष्ण ! कृष्ण ! महाबाहो भक्तानामार्तिनाशनम् ।
सर्वपापप्रशमनं    पादोदकं    प्रयच्छ     मे  ॥

समन्त्र चरणामृत ग्रहण कर इस मन्त्र को बोलते हुए चरणामृत (पादोदक) पान करें –

अकालमृत्युहरणं     सर्वव्याधिविनाशनम्।
विष्णुपादोदकं पीत्वा  पुनर्जन्म न विद्यते॥

9. पूजा के अनन्तर तुलसी, पञ्चामृत तथा नैवेद्य इन मन्त्रों से ग्रहण करने चाहिए ।

तुलसीपत्र प्रसाद ग्रहण मन्त्र –

पूजनानन्तरं  विष्णोरर्पितं तुलसीदलम्।
भक्षये देहशुद्ध्यर्थं चान्द्रायणशताधिकम्॥

पञ्चामृत ग्रहण करने के मन्त्र से पूर्व पञ्चामृत क्या है यह जानना आवश्यक है।

आप्टे संस्कृत कोश के अनुसार देवपूजा के लिए पाँच मिष्ट पदार्थों का संग्रह पञ्चामृत कहलाता है। ये पाँच पदार्थ हैं –

दुग्धं च शर्करा चैव घृतं दधि तथा मधु।

देव विग्रह के अभिषेक के लिए इनका प्रयोग किया जाता है।

पञ्चामृत ग्रहण मन्त्र –

दुःखदौर्भाग्यनाशाय     सर्वपापक्षयाय     च ।
विष्णोः पञ्चामृतमं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते॥

10. देव पूजन  में प्रयोग की जाने  वाली विशिष्ट सामग्रियों यथा पञ्चपल्लव, पञ्चरत्न,  पञ्चगव्य, पञ्चधान्य के घटक कौन-कौन से हैं ?

पञ्चपल्लव – जिस प्रकार वृक्षों के विना हमारा जीवन अधूरा है उसी प्रकार सामान्यतया हमारे समस्त पूजनादि माँगलिक कार्यों में पल्लवों, फलों तथा वृक्षों से प्राप्त अन्य उत्पादों को महत्व पूर्ण स्थान दिया गया है। पूजा में पञ्चपल्लव  अर्थात्  पाँच वृक्षोंके पल्लवों का प्रयोग किया जाता है। ये हैं –

बरगद, पीपल, आम, पाकर और गूलर ।

पञ्चरत्न – कलशमें इन पञ्चरत्नों का  प्रयोग किया जाता है : सोना, हीरा, मोती, पुखराज और नीलम। अथवा सोना, चाँदी, ताँबा, मूँगा और मोती।

पञ्चगव्य- गौमाता से प्राप्त पाँच पदार्थों के निश्चित अनुपात में मिश्रण से प्राप्त होता है। ये पदार्थ  हैं—

१ भाग गोबर, २ भाग गोमूत्र, ४ भाग दुग्ध,  २भाग घृत तथा २ भाग दही।

पञ्चधान्य – तिल, मूँग, जौ, उड़द और चावल ।

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